Friday, September 5, 2014

Erosion Of Moral Values Will Prove Disasterous

नहीं स्वीकार करना चाहिए था सतशिवम को राज्यपाल पद!  By  हरिवंश (Prabhat Khabar)

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश सतशिवम इसी वर्ष 26 अप्रैल को रिटायर हुए. उन्होंने शुक्रवार, पांच सितंबर को केरल के राज्यपाल पद की शपथ ले ली. अब राज्यपाल बननेवाले भारत के वह पहले पूर्व मुख्य न्यायाधीश हैं. कानूनन, रिटायर होने के बाद जजों पर नये पद स्वीकार करने या नये दायित्व संभालने की पाबंदी नहीं है.

पर इस नियुक्ति ने कई गंभीर सवाल खड़े किये हैं. सबसे तल्ख प्रतिक्रिया, मुख्य विरोधी दल कांग्रेस ने दी. कांग्रेस ने पूछा कि अमित शाह मामले में, क्या न्यायमूर्ति सतशिवम के फैसले का यह तोहफा है? पर कांग्रेस के ही दूसरे चर्चित नेता, मनीष तिवारी ने प्रतिवाद क्रिया कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश द्वारा राज्यपाल पद स्वीकार करने में कोई संवैधानिक या कानूनी अड़चन है ही नहीं. इससे कांग्रेस में ही विवाद छिड़ गया. दरअसल, राजनीति में अशुद्ध परंपराओं की जननी, कांग्रेस है.



इसके पहले सुप्रीम कोर्ट की एक रिटायर्ड जज, न्यायमूर्ति एम फातिमा बीबी, 1997 में राज्यपाल बना कर चेन्नई राजभवन भेजी गयीं थीं. 1960 के दशक में भारत के एक और पूर्व मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति पीवी गजेंद्र गडकर एक विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर बनाये गये थे. कांग्रेसी यह भी भूल गये हैं कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष भी बनाया गया था. तब इस फैसले को लेकर तीव्र विवाद हुआ. इस पूर्व मुख्य न्यायाधीश के अनेक सगे-संबंधियों पर बेनामी संपत्ति के गंभीर आरोप थे.

पिछले साल अगस्त में कॉमन कॉज संस्था ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दी, जिसमें पूर्व मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन को राष्ट्रीय मानवाधिकार के पद से हटाने का आग्रह था. 04 अप्रैल, 2011 को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर करनेवाले प्रशांत भूषण ने प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को भी न्यायमूर्ति बालाकृष्णन की बेनामी संपत्ति, आय से अधिक संपत्ति और उनके निकट के रिश्तेदारों-सहयोगियों की संपत्ति समेत कई कामों का ब्योरा दिया.


पिछले साल जून (21.06.2013) में हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर थी, गवर्मेट वुड नॉट रिवील एसेट्स प्रोब फाइडिंग एगेंस्ट किन ऑफ एक्स-सीजेआइ (पूर्व न्यायाधीश के संबंधियों के खिलाफ संपत्ति की हुई जांच को सरकार उजागर नहीं करेगी). इस तरह बालाकृष्णन की नियुक्ति को लेकर अनेक गंभीर सवाल तब खड़े हुए. पर यूपीए सरकार, राजनीतिक मर्यादा और स्वस्थ परंपरा से बेखबर रही.

कांग्रेस के मनीष तिवारी ने ही सतशिवम की नियुक्ति का विरोध करनेवाले कांग्रेस प्रवक्ता, आनंद शर्मा को जवाब दिया कि नब्बे के दशक में कांग्रेस ने ही एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश, रंगनाथ मिश्र को रिटायर होने के बाद उड़ीसा से राज्यसभा में भेजा था. यह राजनीतिक विवाद अलग है.

दरअसल, हकीकत यह है कि भाजपा, कांग्रेस की अपसंस्कृति की परंपराओं की उत्तराधिकारी बन रही है. बजट बनाने में भी यही दिखा. अब सरकारी कामकाज में भी यही परिलक्षित है. चुनाव से पहले भाजपा का प्रचार क्या था? कांग्रेस की अपसंस्कृति के मुकाबले एक नयी कार्यसंस्कृति देने की.


 
 
गौर करना चाहिए कि इस इस देश में गैर-कांग्रेसवाद की परिकल्पना डॉ राममनोहर लोहिया ने की. उनके गैर-कांग्रेसवाद का आशय, महज सत्ता परिवर्तन नहीं था. बल्कि एक नितांत नयी कार्यसंस्कृति, राजनीतिक संस्कृति शासन संस्कृति का जन्म था. ऊपर से नीचे तक. सोचने में, चलने में, काम करने में, बात-विचार में. कांग्रेस के मुकाबले एक नयी समानांतर नैतिक संस्कृति की परिकल्पना. भारत की मिट्टी से जुड़ी नैतिक परंपराओं के अनुरूप सत्ता का संचालन. पर ऐसी नियुक्तियों से भाजपा, कांग्रेस की अपसंस्कृति की राह पर ही तेजी से बढ़ रही है. सतशिवम के राज्यपाल बनने पर दूसरी बहस कानूनविदों, न्यायविदों, बौद्धिकों और मीडिया के बीच है.


सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष पीएच पारीख का मानना है कि राज्यपाल सरकार की इच्छा से हटाये जा सकते हैं. इसलिए सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज या पूर्व मुख्य न्यायाधीश द्वारा इस पद को स्वीकार करना सही नहीं है. क्योंकि तब वह गृह मंत्रलय के अधीन होगा. सुप्रीम कोर्ट के ही एक जाने-माने वकील गोपाल शंकर नारायणन कहते हैं कि इससे न्यायपालिका की स्वायत्तता प्रभावित होती है. क्योंकि तब न्यायपालिका के सर्वोच्च पद पर काम करनेवाला व्यक्ति, कार्यपालिका के अधीन होगा. ऐसी स्थिति में भारत के एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश को शपथ, उनके एक जूनियर यानी केरल उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दिलायेंगे. सुप्रीम कोर्ट में जज रहे, केरल के न्यायमूर्ति केटी थामस मानते हैं कि यह पद लोवर पोस्ट’ (नीचे का पद) है. क्योंकि भारत का पूर्व मुख्य न्यायाधीश, वरिष्ठता क्रम में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के बाद चौथे नंबर पर है, इस तरह न्यायविदों और बौद्धिकों की चिंता है कि बड़े पद पर रहने के बाद, कम महत्व के पद पर जाना गलत है.

यह जान लेना भी रोचक है कि न्यायमूर्ति सतशिवम ने क्या कहा? उनका कहना है कि भारत के अनेक पूर्व मुख्य न्यायाधीश आरबिट्रेशन’ (पंच-फैसला या मध्यस्थ-निर्णय) और कन्सल्टेंसी’ (सलाह देने) का काम करते हैं. पर मैंने गुजरे चार महीनों में कोई व्यावसायिक काम हाथ में नहीं लिया. उन्होंने यह भी कहा कि कुछ उच्च न्यायालयों के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों ने कानून मंत्री के रूप में भी काम किया है. इस तरह एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश के राज्यपाल बनने की बहस कानूनी दावं-पेच और सही गलत ठहराने के तर्को के जाल में फंसी है.


 
 
देश के राजनीतिक गलियारे और बौद्धिकों-न्यायविदों की दुनिया में, इस नियुक्ति को लेकर हो रही बहस को आपने पढ़ा. पर क्या यह नियुक्ति महज इन्हीं दो घेरों तक सीमित है? नहीं.


पूरा देश एक तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण पक्ष भूल गया है. वह पक्ष है, महत्वपूर्ण पद पर रहे लोगों के नैतिक होने का. बिना नैतिक हुए यह संसार, समाज या देश टिक ही नहीं सकता. मानवीय मर्यादा, शुचिता और गरिमा ही नयी सृष्टि का निर्माण करते हैं. नये मूल्य गढ़ते हैं. नये समाज को जन्म देते हैं. मनुष्य को नयी ऊंचाई पर ले जाते हैं. यह ऊंचाई भारत को आजादी की लड़ाई के मूल्यों ने दी. उन्हीं दिनों के दो प्रसंग का उल्लेख करना चाहूंगा (इन्हें प्राय: मैं स्मरण कराता हूं, ताकि बार-बार की पुनरावृत्ति से यह लोक स्मृति में जीवित रहे).


 
 
 
पहली घटना इलाहाबाद की है. कैसे जज होते थे, पहले? इलाहाबाद उच्च न्यायालय का यह प्रसंग है. इलाहाबाद उच्च न्यायालय के ही एक रिटायर्ड जज थे. उनका नाम था, एसके धर. वह तीन वर्ष से कम समय के लिए जज रहे थे, इसलिए कानूनी रूप से तब पेंशन के हकदार नहीं थे. इलाहाबाद उच्च न्यायालय से रिटायर होने के कारण उन्होंने वहां प्रैक्टिस भी नहीं की. वह दिल्ली चले गये. उनकी आंखों में तकलीफ हुई. वह अपने गृह नगर आगरा लौट गये. उनके लिए बुरे दिन थे. अभावों के दिन. आर्थिक संकट के दिन. उनकी स्थिति जान कर कलकत्ता (अब कोलकाता) उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने उन्हें एक मामले में आरबिट्रेटर (पंच) नियुक्त किया. उन्हें पांच दिन काम करना था, जिसके लिए उन्हें पचास हजार रुपये मिलने थे. न्यायमूर्ति एसके धर ने मना कर दिया. कोलकाता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को लगा कि शायद फीस कम होने की वजह से उन्होंने मना कर दिया है. उन्होंने पचास हजार रुपये से फीस बढ़ा कर एक लाख रुपया कर दी. तब एसके धर ने कोलकाता के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखा कि उन्होंने पहली बार प्रस्ताव ठुकराया, वह कम शुल्क होने के कारण किया गया फैसला नहीं था. ऐसा है कि उन्हें पैसे की जरूरत नहीं है. बल्कि यह काम करने का फैसला उन्होंने उस पद पर रहने (न्यायमूर्ति) के कारण किया है, जिस पर वह कुछ वर्ष रहे हैं. न्यायाधीश पद की गरिमा बनाये रखने के लिए न्यायमूर्ति श्री धर ने अभाव का जीवन चुना. संकट को न्योता, पर जिस पद पर रहे थे, उसकी गरिमा घटने दी. यह सार्वजनिक आचरण, निजी सोच, गरिमा, आत्म-स्वाभिमान, सात्विकता थी, हमारे न्यायमूर्तियों में.


 
 
एक दूसरा प्रसंग भी इलाहाबाद से ही. इलाहाबाद उच्च न्यायालय में मशहूर वकील थे, कैलाशनाथ काटजू. वह आजादी की लड़ाई में भी शरीक थे. आजादी मिलने के बाद वह गवर्नर बने. जब वह बंगाल के गवर्नर थे, तब की घटना है. उनके पुत्र शिवराज काटजू इलाहाबाद में ही औसत प्रतिभा के वकील थे. उन्होंने अपने गवर्नर पिता को पत्र लिखा कि ब्रिटिश इंडिया कारपोरेशन ने उन्हें कुछ कागजात भेजे हैं, हस्ताक्षर करने के लिए. वे उनको (यानी शिवराज काटजू को) अपने निदेशक मंडल (बोर्ड ऑफ डायरेक्टर) में लेना चाहते हैं. कैलाशनाथ जी ने अपने पुत्र को पत्र लिखा, जिसका आशय था -
प्रिय शिवाजी,
तुम्हारा पत्र पाकर एक पिता के रूप में मुझे गौरव हुआ. ब्रिटिश इंडिया कंपनी में हमारा शेयर मामूली है, जिसके कारण तुम्हें निदेशक मंडल में शामिल करने का औचित्य प्रमाणित नहीं होता. हो सकता है, यह तुम्हारी प्रतिभा के कारण हो रहा हो. इससे मुझे गौरव होता है. पर, तुम्हारी एक मुश्किल है, वह हैं तुम्हारे पिता. हालांकि ब्रिटिश इंडिया कंपनी का बंगाल में कुछ भी नहीं है. वैसे भी राज्यपाल एक कास्मेटिक पद है. मैंने अपने जीवन की पारी खेल ली है और तुम्हारे रास्ते में नहीं आऊंगा. जब भी अपने कागजात दस्तख्त कर भेजना, मुझे सूचित कर देना. मैं इस्तीफा देकर इलाहाबाद उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करने लौट जाऊंगा.

-तुम्हारा पिता





 
 
शिवराज काटजू ने निदेशक बनने के फॉर्म पर दस्तख्त नहीं किये. अपनी सहमति नहीं दी. इस तरह कैलाशनाथ काटजू ने भी गवर्नर पद से इस्तीफा नहीं दिया. श्री काटजू को लगा कि उनको गवर्नर होने के नाते, ब्रिटिश इंडिया कारपोरेशन कंपनी उनके पुत्र को निदेशक मंडल में रखना चाहती है. इसलिए उन्होंने इस्तीफा देने का मन बना लिया. सार्वजनिक जीवन में इस नैतिक स्तर के थे, हमारे वकील.



 
न्यायपालिका से ही ऐसे अनेक पुराने प्रसंग हैं, जो हमारे तत्कालीन सार्वजनिक जीवन की उच्च नैतिक मापदंड के प्रेरक प्रसंग हैं. 1980 के दशक की एक और महत्वपूर्ण घटना, पर दूसरे क्षेत्र की.


 
 
भारतीय स्टेट बैंक के एक चेयरमैन थे, आरके तलवार. इमरजेंसी में सर्वशक्तिमान संजय गांधी के दबाव में उन्होंने उनके चहेतों को गलत लोन देने से मना कर दिया. यह असाधारण घटना थी. पत्रकारिता में भी वे ऐसे दिन थे, जिसे आपातकाल हटने के बाद लालकृष्ण आडवाणी ने यह कह कर याद किया कि जब पत्रकारों को झुकने के लिए कहा गया, तो वे रेंगने लगे. तब एक बैंक के एक चेयरमैन ने एक सर्वशक्तिमान असंवैधानिक ताकत के खिलाफ ईमानदारी और सच का रास्ता चुना. वह हटा दिये गये. वह चुपचाप अरविंद आश्रम पांडिचेरी चले गये. बाद में जनता दल की सरकार बनी, और आरके तलवार की चर्चा एक नायक के रूप में हुई. उन्हें स्टेट बैंक, आइडीबीआइ समेत अनेक महत्वपूर्ण संस्थानों के चेयरमैन बनने के प्रस्ताव मिले. भारत सरकार के अधिकारी, उनके लिए यह प्रस्ताव लेकर पांडिचेरी गये. उन्हें आश्रम के खेत में खेती करते पाया. हर प्रलोभन और बड़े पद के प्रस्ताव को आरके तलवार ने ठुकरा दिया. उन्होंने आजीवन संन्यस्त जीवन जीया. आश्रम में अपनी निजता, स्वाभिमान बचाये हुए.


 
 
 
बचपन में झोपड़ीवाले प्राइमरी स्कूल और टाट के बोरे पर बैठ कर हमारी पीढ़ी के लोग, धोती पहने अध्यापक से अनेक प्रसंग सुनते थे, जो आज भी स्मृति में हैं. उन्हीं में से एक प्रसंग था, जिसका हिंदी आशय है- संपत्ति खत्म हो गयी, तो समझो कुछ नहीं गया. स्वास्थ्य गिरा, तो समझो कुछ नुकसान हुआ. पर चरित्र खत्म हो गया, तो समझो सबकुछ खत्म हो गया.


 
 
आज इस मुल्क का असल संकट चरित्र का संकट है. नैतिक संकट है. मधु लिमये ने एक बार लिखा था कि कुछ व्यक्ति बिना पद के भी महान होते हैं. कुछ राष्ट्र के सेवक के रूप में शानदार उपलब्धियों से महान बनते हैं. लेकिन कुछ ऐसे पदधारी भी होते हैं, जो क्षणिक महानता’ प्राप्त करते हैं, लेकिन जब पद छोड़ते हैं या पद छोड़ने को बाध्य होते हैं, तो उन्हें कोई नहीं पूछता. उन्हें कोई रोनेवाला भी नहीं मिलता.


 
 
आज भारत के सार्वजनिक जीवन की यही कथा है. राजनीति हो, शासन हो, पत्रकारिता हो, सब में चरित्रवान और संकल्पवान लोगों की जरूरत है. झारखंड में एक फिक्सर और दलाल रंजीत उर्फ रकीबुल का प्रकरण सामने आया है. पूरे देश में चर्चा है. मामूली पढ़ा-लिखा, अत्यंत गरीब परिवार से. पर कुछ ही वर्षो में दलाली और फिक्सरी के धंधे से पूरे देश में सार्वजनिक बहस का केंद्र बन गया है.   


लोवर कोर्ट के अनेक जजों के साथ उसके संबंध. अनेक मंत्रियों-अफसरों के साथ उसकी गहरी दोस्ती. ऐसे रंजीत उर्फ रकीबुल, पूरे देश में पसरे हैं निर्णायक हैं. रांची से दिल्ली तक. देश के अन्य दूसरे राज्यों की राजधानियों में भी हैं. पत्रकारिता से लेकर विधायिका और कार्यपालिका आदि सभी क्षेत्रों में हैं. राजनीति में भी. क्या कोई देश बिना चरित्र के चल सकता है?


 
 
न्यायपालिका, भारत की अंतिम उम्मीद मानी जाती है. पर पिछले कुछेक वर्षो में सर्वोच्च न्यायपालिका से जुड़ी खबरों ने देश को स्तब्ध किया है. याद करिए, पिछले साल (12.07.2013) की खबर है, जो इंडियन एक्सप्रेस में छपी थी. गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, भास्कर भट्टाचार्य ने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायधीश, अल्तमश कबीर के खिलाफ शिकायत की. खबर का मूल अर्थ सामान्य भाषा में क्या था? तब गुजरात उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, भास्कर भट्टाचार्य को सुप्रीम कोर्ट का जज नहीं बनाया गया, जबकि वह देश में सभी हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीशों की सूची में तीसरे नंबर पर थे. उन्होंने भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति अल्तमश कबीर पर आरोप लगाया कि चूंकि कोलकाता हाईकोर्ट में न्यायमूर्ति कबीर की बहन को उच्च न्यायालय का जज बनाने का उन्होंने विरोध किया था, इसलिए उन्हें, न्यायमूर्ति कबीर ने सुप्रीम कोर्ट का जज नहीं बनने दिया. सुप्रीम कोर्ट में जज बनानेवाली समिति, कोलेजियम के सदस्य भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश भी थे. श्री कबीर ने इस आरोप को गलत बताया, पर उनके रिटायर होते ही उनके कई फैसलों पर सवाल उठे. पहला चर्चित प्रकरण था, एकल मेडिकल प्रवेश परीक्षा पर फैसला. दूसरा, श्री कबीर के जाते-जाते सुप्रीम कोर्ट में जज की नियुक्ति की कोशिश. तीसरा, जेपी एसोसिएट से जुड़ा फैसला. चौथा, सहारा-सेबी का मामला और पांचवा, बहन को जज बनाने का प्रसंग.


 
 
ऐसे हालात या माहौल में जब न्यायपालिका की गरिमा और मर्यादा को एक नयी ऊंचाई देने की जरूरत है, तब न्यायपालिका से जुड़े सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति को रिटायर होने के बाद गवर्नर का पद देना, एक अत्यंत अस्वस्थ परंपरा की शुरूआत है. यह कानूनन जायज हो सकता है, पर नैतिक रूप से नहीं.

भारत की आत्मा या नैतिक पुंज है, न्यायपालिका. उसमें शिखर पर रहे लोगों को अपने आचरण और काम से नैतिक होने का क्या एक नया पाठ नहीं लिखना चाहिए? महाभारत कहता है, महाजनो येन गत: पंथा यानी समाज के अगुआ जिस रास्ते जाते हैं, साधारण लोग उसी रास्ते का पालन करते हैं. इसी तरह गीता में भी कहा गया है,

 
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन:

यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ।।

इसका अर्थ है, महापुरुष जो-जो आचरण करते हैं, सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं. बड़े पदों पर बैठे लोग अपने अनुसरणीय कामों से जो आदर्श प्रस्तुत करते हैं, संपूर्ण विश्व उसका ही अनुसरण करता है. बहुत साफ है, सामान्य लोगों की रहनुमाई के लिए नेता या अगुआ चाहिए, जो अपने व्यावहारिक आचरण से जनता या समाज को दिशा या राह दिखा सके. चैतन्य महाप्रभु ने कहा था कि शिक्षा देने के पहले शिक्षक को ठीक -ठीक आचरण करना चाहिए. पहले के शिक्षक ऐसा करते थे, इसलिए वे स्वत: आदर पाते थे. इसी तरह जो लोग न्याय देने की सर्वोच्च कुरसी पर रहे हैं, उनका जीवन-आचरण खुद समाज के लिए संदेश होना चाहिए.





राजनीति या सामाजिक समाजिक जीवन से जिस क्षण स्वस्थ नैतिक मूल्यों को हम खत्म कर देंगे, हमारे समाज को अंधेरे में रोशनी दिखानेवाला चिराग नहीं बचेगा. शासक में हमेशा एक वीतराग या त्याग का अंश होना ही चाहिए. आजादी की लड़ाई में बड़े पैमाने पर ऐसे लोग थे, जिनकी बड़ी कुरबानी रही. आजादी मिलने के पहले या बाद में ऐसे लोगों ने पद या सत्ता के पीछे भागने के बदले अध्यात्म का रास्ता चुना. वे अध्यात्म में चले गये. खुद कांग्रेस में अनेक ऐसे कद्दावर नेता थे, जिन्होंने पंडित नेहरू का प्रस्ताव, अस्वीकार कर केंद्रीय मंत्रिमंडल में जा कर अपने-अपने क्षेत्रों में विशिष्ट काम करते रहे.


 
 
पर अब समय बदला है. यह पद की पूजा का दौर है. धन (भौतिक संपदा) में ही मोक्ष पाने का युग. बाजार का युग. किसी की कीमत लगाने का युग. अर्थ प्रधान युग. भोग का युग. भय, भ्रष्टाचार और भूख से मुक्ति दिलाने के साथ-साथ भाजपा के लोग इस बाजार की अपसंस्कृति के मुकाबले एक नयी संस्कृति की बात करते थे. पर सत्ता मिली, तो क्या कर रहे हैं? कैसे-कैसे लोग राज्यपाल बन रहे हैं. कांग्रेस ने जिस तरह के लोगों को राज्यपाल बनाया, राज्यपाल बनने के लिए जो मापदंड तय किये, उसी तौर-तरीके को भाजपा ने अपनाया है. अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ताओं को, अपने ही लोगों को, जिनका अतीत बहुत विवादपूर्ण रहा है, वैसे लोगों को राज्यपाल के पद पर बैठाया गया. क्या यह सही कार्यसंस्कृति है?


 
 
आजादी के बाद, जो राज्यपाल बनाये गये, उन्होंने राज्यपाल पद को एक गरिमा और पहचान दी. राजगोपालाचारी, पश्चिम बंगाल के पहले राज्यपाल बने. सरोजनी नायडू, होमी भाभा, केएम मुंशी, आसफ अली, श्रीप्रकाश, सरदार उज्जल सिंह, एनएस ó, महाराज भाव सिंह जी (भावनगर), हरेन मुखर्जी, पीबी चेरियन आदि राज्यपाल हुए. एक से एक बढ़कर एक विद्वता, आचरण और प्रखर ढंग सके कामकाज में पूरे समाज को प्रेरित करनेवाले.


 
 
राज्यपालों का एक सम्मेलन हुआ, 08.05.1949 को. तत्कालीन गवर्नर जनरल सी राजगोपालाचारी, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और उपप्रधानमंत्री सरदार पटेल ने इसे संबोधित किया. राजाजी ने बताया कि हम सब राज्यपालों से क्या अपेक्षा रखते हैं? उन्होंने कहा कि हमारे प्रधानमंत्री और उपप्रधानमंत्री मानते हैं कि सिर्फ आप दिखावे के लिए संवैधानिक हेड नहीं हैं. यह गलत मान्यता है कि आप कुछ नहीं कर सकते. हमारी मान्यता है कि समाज में अच्छाई को आप विकसित करेंगे. उसको पाने के रास्ते तलाशेंगे. बिना तनाव या पूर्वाग्रह के, लोकतंत्र के विकास के क्रम में. गांधी और राजाजी की राज्यपालों से मुख्य अपेक्षा थी कि वे नैतिक ताकत के स्नेत बनेंगे. पद के मोह से मुक्त. सही दृष्टिवाले. समाज में अच्छाई को प्रेरित करनेवाले.


पर अब राज्यपाल किस तरह के लोग बने रहे हैं. यह पतन की परंपरा इंदिरा गांधी के समय से शुरू हुई. फिर भी इंदिराजी ने कुछेक अच्छे लोगों को ही राज्यपाल बनाया. मसलन, मोहनलाल सुखाड़िया, धर्मवीर, एएन डायस, बीके नेहरू, एलपी सिंह, प्रो नुरूल हसन , के रघुनाथ रेड्डी. भाजपा कार्यकाल में भी टीएन चतुर्वेदी जैसे सरस्वतीपुत्र और नैतिक पुंज राज्यपाल बने. पर ये सब अपवाद हैं.


 
 
मोहनलाल सुखाड़िया, लंबे समय तक राजस्थान के मुख्यमंत्री रहे. इंदिराजी ने उन्हें कमजोर करने के लिए हटाया और तमिलनाडु का राज्यपाल बना दिया. इमरजेंसी लगी. तब तमिलनाडु, राष्ट्रपति शासन के अधीन था. फिर चुनाव हुए और जैसे ही सूचना मिली कि इंदिराजी चुनाव हार गयीं है, मोहनलाल सुखाड़िया उसी क्षण अपना सामान लेकर, दिल्ली पहुंच गये. उन्होंने नयी सरकार को अपना इस्तीफा सौंप दिया. मोरारजी, चरण सिंह, सब हतप्रभ. सबके मन में उनके प्रति पहले से आदर का भाव था.


 
 
और बढ़ा. उसके बाद एक अशोभनीय खेल शुरू हुआ, जो सरकार आती है, अपने राज्यपाल रखती है. दूसरे को निकाल-बाहर करती है. कुछ राज्यपाल ऐसे होते हैं, जो पद से चिपके रहना चाहते हैं. एनडीए के शासनकाल में जो राज्यपाल बने, उन्हें 2004 में आते ही यूपीए ने निकाल-बाहर किया. अब एनडीए की वापसी हो गयी. यूपीए कार्यकाल के कुछ राज्यपाल गये, कुछ अड़ गये. वे निकाल बाहर किये जा रहे हैं. कैसा बना दिया हमने राज्यपाल के पद का महत्व?
 
 


भाजपा के लिए मौका था कि वह समाज के अलग-अलग तबकों के चरित्रवान, अब्दुल कलाम परंपरा के लोगों को राज्यपाल बनाती, तो उसका एक अलग संदेश होता. राजनीति से नैतिकता की विदाई और आदर्श का खत्म हो जाना, भारतीय समाज का सबसे बड़ा संकट है. अपवाद हैं, हर दल में, हर क्षेत्र में. राजनीति में भी, प्रशासन में भी और पत्रकारिता में भी.


 
 
आज की स्थिति क्या है? अंग्रेजी के महान कवि, डब्ल्यू बी ईट्स ने 1921 में एक कविता लिखी थी, सेकेंड कमिंग (दोबारा आगमन). इस अंग्रेजी कविता की अंतिम दो पंक्तियों का हिंदी भावार्थ है,
जो सर्वश्रेष्ठ हैं (यानी अच्छे लोग), उनमें दृढ़ता नहीं, मनोबल नहीं!
पर जो सबसे अधम हैं (समाज के खराब-तलछट के लोग), उनके अंदर उत्कट-वासनामय-तीव्र प्रगाढ़ता-प्रबलता या एकजुटता है.


 
 
 
राजकाज को कुछ नजदीक से देखने का मौका मिला. चरित्र का संकट देश में गहरा है. ऐसे दौर में उम्मीद के स्नेत क्या हैं? जानता हूं, अपना निजी अनुभव आपसे बाटूंगा, तो कई अर्थ निकलेंगे, फिर भी सच कहना ही चाहिए. नीतीश कुमार ने लोकसभा चुनावों में हार के बाद, जिस क्षण स्वत:, पूरी मर्यादा के साथ तत्काल पद छोड़ने का फैसला लिया, वह आज के दौर में एक अलग अध्याय है. पर उससे भी अधिक अनजाना और अछूता प्रसंग. यह किसी खबर के लिए नहीं. शायद आठ-दस लोग जानते हों कि जैसे ही उन्होंने मुख्यमंत्री पद छोड़ा, मुख्यमंत्री आवास की चाय पीनी भी बंद कर दी. निजी गाड़ी से यात्र करने लगे. तुरंत सरकारी आवास छोड़ देने की बेचैनी. यह प्रवृत्ति या मानस निजी उच्च नैतिक आग्रह का परिणाम है.


 
 
किसी भी राजनीति, समाज या संस्था को यह बोध ही नयी ऊंचाई देती है. तात्कालिक सफलता-विफलता से आगे जाकर. पहले की राजनीति में यह एक वीतराग मानस रहा है. संन्यस्त प्रवृत्ति. त्याग की प्रवृत्ति. मर्यादा और शुचिता की प्रवृत्ति. सिर्फ पद से व्यक्ति बड़ा नहीं होता. व्यक्ति के मूल्य, पद को नयी गरिमा और ऊंचाई देते हैं. आज सिर्फ राजनीति ही नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में मूल्यों को एक नयी ऊंचाई पर ले जाने की जरूरत है, तभी शायद देश एक सवेरा देख सके.

 


कुछ दिनों पहले एक अत्यंत सम्मानित कानूनविद् फली एस नरीमन की एक पुस्तक आयी, स्टेट ऑफ नेशन. जो लोग भारत की चिंता करते हैं, उनके लिए एक जरूरी पुस्तक. इस पुस्तक की भूमिका में दो प्रसंग हैं. पहला भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ एस राधाकृष्णन का बयान. जब कंस्टिच्युएंट एसेंबली (संविधान सभा) के सदस्यों ने पहली बार संकल्प लिया, पूरी विनम्रता के साथ देश और देश की जनता के प्रति समर्पण का, तब डॉ राधाकृष्णन ने इस प्रस्ताव का अनुमोदन किया. उन्होंने चेतावनी दी थी, ह्वेन पावर आउटस्ट्रिप्स एबिलीटी, वी विल फॉल ऑन इविल डेज (जब सत्ता योग्यता को पीछे छोड़ देगी, तो हमारे बुरे दिन शुरू होंगे). फली एस नरीमन मानते हैं कि आज योग्यता को सत्ता ने पीछे छोड़ दिया है. हम बुरे दिनों में हैं. राजनीति में अधिक और लगभग हर क्षेत्र में योग्यता या क्षमता का संकट है. साथ-साथ इंटीग्रिटी (निष्ठा) का अभाव है. लगभग हर क्षेत्र में.



 
 
 
इस पुस्तक की भूमिका के अंतिम अंश में फली एस नरीमन ने एक सुंदर उद्धरण दिया है. हर भारतीय को याद रखने या सीखने योग्य. इस सवाल का उत्तर कि भारतीय गणराज्य कब तक कायम रहेगा? शायद हमेशा के लिए, लेकिन यह कोई नहीं कह सकता. इसे समझने के लिए नरीमन एक प्रसंग सुनाते हैं. यह एक सच्ची कहानी है. जब संयुक्त राज्य अमेरिका, आज के भारत के हाल में था. अराजकता, आपसी झगड़ों, विवादों से घिरा. अंतत: इन्हीं चीजों से अमेरिका में 1861-65 के बीच सिविल वार (गृह युद्ध) हुआ. इस समय ब्रिटेन में रह रहे फ्रांस के राजदूत जो खुद एक इतिहासकार थे, उन्होंने अमेरिकी राजदूत (जो कवि और साहित्यकार थे) से पूछा, एक्सलेंसी, मुझे बतायें, आपका यह गणराज्य (यानी संयुक्त राज्य अमेरिका) कब तक कायम रहेगा?


 
 
अमेरिकी राजदूत जेम्स लोवेल का जवाब अत्यंत संक्षिप्त दूरदर्शी था- एक्सलेंसी, एज लांग एज इट्स लीडर्स लीव अप टू एंड चेरिश आइडियल्स आफ इट्स फाउंडिग फादर्स (एक्सलेंसी, यह मुल्क तब तक कायम रहेगा, जब तक इस मुल्क के नेता, अपने इस देश के संस्थापक महान नेताओं के आदर्श, मूल्यों के अनुसार रहेंगे, जीयेंगे और काम करेंगे). इस प्रसंग का तात्पर्य यह है कि अमेरिकी राजदूत कहते हैं कि हमारा देश अमेरिका तब तक कायम रहेगा, जब तक इसके नेता अपने संस्थापक नेताओं के आदर्शो के अनुसार चलेंगे, जीयेंगे, राजनीति करेंगे.


 
 
आज भारत के भविष्य के बारे में कोई पूछे कि भारत का भविष्य कब तक है? तो इस उद्धरण से बेहतर और सुंदर जवाब नहीं हो सकता. याद रखिए अमेरिका के गृहयुद्ध में यह सवाल कि अमेरिका का भविष्य कब तक है, फ्रांस के ब्रिटेन स्थित राजदूत ने अमेरिका के ब्रिटेन स्थित राजदूत से पूछा था. इस कथन या मर्म को भारत के संदर्भ में आंकिए फिर खुद समझिए.


 
 
लगभग आठ माह बाद यह लिखना हुआ, इस बीच एकाध चीजें ही लिख पाया. पर घूमना हुआ. सब्जी बेचनेवाले से लेकर, सार्वजनिक कार्यकर्ता, अध्यापक, वकील, राजनीति से जुड़े लोग और बड़े पदों पर बैठे लोगों ने निजी फोन कर लगातार लिखते रहने की बात की. सबके प्रति निजी आभार और धन्यवाद. यह प्रक्रिया अब बनी रहेगी.

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